भारत कृषि प्रधान देश है, जहाँ देश के एक बड़े तबके के जीवन उपार्जन का यही साधन है. लेकिन आज किसानों की हालत बद से बदतर होती जा रही है. ख़ासकर मोदी सरकार की नीतियाँ किसानों को लेकर फेल होती दिखाई प़ड़ रहीं हैं.
एक समय था जब कृषि का GDP में बहुत बड़ा योगदान होता था, जो वक़्त के साथ कम होता गया.आज हमारे देश के "अन्न दाता" आत्महत्या करने को विवश हैं. राज्यों के आँकड़ों के मुताबिक़ 2006से 2010 के बीच हर साल औसतन 1555 किसानों ने आत्महत्याएँ की थी.
2011 में ये संख्या शून्य हो गयी, 2012 में महज़ 4 बताई गयी.
अक्सर उन किसानों ने आत्महत्या की जिनके पास या तो कम भूमि थी, या फिर ठेके पर खेती करते थे या फिरखेतिहर मज़दूर थे. कई राज्यों में किसानों की आत्महत्या को राजनीतिक तौर से नुकसान पहुँचाने वाला मुद्दाबनाया गया. लेकिन गजेन्द्र सिंह की आत्महत्या को आपदा पीड़ित किसान कहना मुश्किल है, क्योंकिउनके पास 10 एकड़ ज़मीन थी जिसपर उनका परिवार गेहूँ, आँवला और सागवान की खेती करता था.
किसानों की आत्महत्या से सबसे ज़्यादा प्रभावित
राज्य महाराष्ट्र है जहाँ कि 2014 के दौरान 6710 खेतिहर मज़दूरों ने आत्महत्या की
जब कि आंध्र प्रदेश में 160 किसानों ने आत्महत्या की. महाराष्ट्र सरकार के
मुताबिक़ 2013 में 1296 किसानों ने आत्महत्या की थी. महाराष्ट्र में किसानों की
हालत पहले ही बहुत खराब है और उसपर 22 फ़रवरी के आसपास जो ओले पड़े, उससे 19 लाख
हेक्टेयर ज़मीन पर लगी फसल पूरी तरह बर्बाद हो गयी.
किसानों की आत्महत्या का दौर उत्तर भारत के अन्य
राज्यों में भी है. इस साल तो यहाँ तक हुआ की मध्य प्रदेश में किसानों ने अपने
बच्चों तक को गिरवी रख दिया.
आज पंजाब के ग्रामीण इलाक़ों में 35,000 करोड़
रुपये का क़र्ज़ है. इसमें से करीब 38 फ़ीसदी गैर संस्थागत क़र्ज़ है. सरकार ने
पिछले साल 4800 करोड़ की बिजली सब्सिडी दी, 1000 करोड़ की उर्वरक सब्सिडी और 700
करोड़ रुपये की सिंचाई सब्सिडी दी. मुश्किल यह है की इसका बड़ा हिस्सा 7-8 एकड़
वाले किसानों को चला जाता है, छोटे किसानों को सब्सिडी का लाभ नहीं मिलता. इस
त्रसिदि का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है की आज के समय में भारत में 65
प्रतिशत किसानों के पास सिर्फ़ 1 एकड़ या उससे भी कम ज़मीन है.
किसानों के आत्महत्या के बहुत सारे कारण हैं, जैसे
कि किसानों पर क़र्ज़ बहुत बढ़ गया है, खेती की लागत बढ़ गयी है, फसलों की कम कीमत और खराब मौसम की दोहरी मार भी
इस स्थिति के लिए बहुत ज़िम्मेदार है. अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कमोडिटी की कीमतें
पिछले 10 साल के निचले स्तर पर हैं - कपास, आलू और रबड़ पैदा करने वाले भारतीय
किसान इसके सबसे बड़े शिकार बने हैं. बहुत सारे कारण आज की इस हालत के ज़िम्मेदार
हैं जिनमे से मुख्य हैं आयात एवम निर्यात नीति, बीजों की कीमत की समस्या इत्यादि.
हमारे कृषि वेशेषगयो ने पिछले 15 सालों में आम किसानों के लिए कुछ नहीं किया है.
मोदी सरकार को कृषि नीति में काफ़ी सुधार लाने की
ज़रूरत है एवं कृषि के लिए मौसम के पूर्वानुमान को बेहतर बनाने की ज़रूरत है. साथ
ही ज़रूरत है की किसानों को मौसम की जानकारी उपलब्ध कराई जाए.
अगर सरकार ने समय रहते इस कब्र के ढेर को रोका
नहीं तो संभव है की एक समय ऐसा भी आएगा, जब कोई खेती करना ही नहीं चाहेगा. और ये
हमारा सबसे बड़ा दुर्भाग्य होगा.
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